कुल्फी
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अभी कुछ देर पहले ही तो,
इतना सब चल रहा था,
और बस अचानक कुछ और नया सब,
अभी तो लोग इतना दुखी थे,
पर कंप्यूटर के बाहर,
नानी ने कुल्फी वाले काका को बोला था,
की जब मेरे गांव आए,
मुझे कुल्फी खिला के आए,
तो बस,
एकदम बचपन जैसे,
जब हर दुकान पे फ्रिज,
और आइस क्रीम नहीं मिला करती थी,
तब हम इंतजार करते थे,
कुल्फी वाले काका का, कल्याण काका का,
बस तो फिर क्या,
मैंने ढूंढे इधर थोड़े पैसे,
और जल्दी से कुल्फी लाने का सोचा,
और छोटे भाई को बोला ले आने,
खा तो ली, पर फिर याद आया कल्याण बाबा बोले थे,
नानी ने तो सबको खिलाने बोला था,
तो बस फिर क्या,
अपनी कुल्फी खत्म करके,\
ये कविता अधूरी रख के,
वापिस चले गए, गांव के दूसरे कोने में जा चुके,
कल्याण काका को ढूंढने, मैं और मेरा भाई,
और बस खुल गया,
पिटारा,
मम्मी दादी की कहानियों का,
पांच पैसे में मिल जाने वाली उनकी कुल्फी,
कभी बस फल्डो से निकली तुलडी को दे आते,
और ले आते कुल्फी,
कितना सब है, एकदम अलग दुनिया ही,
एक जो चलती रहती है, उधर फोन में, कंप्यूटर में,
और एक ये है मेरी, शांत प्यारी सी,
गर्मी की दोपहरी में ठंडी कुल्फी सी ।