यूँ ही एक बार ढूंढ़ते हुए कुछ जरुरी कागज़ात,
नजर पड़ी मेरी कुछ पुराने खतों पर,
जो लिखे थे कभी, इतना दूर भी तो थे कभी,
अब तो बस तुम आवाज लगा देती हो,
गलियारों से, खिड़की-दरवाजों से,
पास ही तो हो तुम अब इतनी,

चलो पहले खतों की बात को पूरा करते हैं,

लिखा था उनमें से किसी एक में,
की लगता है, जब भगवान जी खीर बना रहे होंगे,
तब उन्होंने सारी किशमिश मुझे ही परोसी दी होगी,
सारे सबसे अच्छे से लोगो से मुझे मिलाया,
लगता है ये रोज जो तुम मेरी नजर उतारा करती हो,
इसी वजह से शायद ऐसा है, शायद इसलिए सब इतना अच्छा सा है,

थे खत इतने सारे, मानों सारी यादें,
सारी चिंता, उन्ही में सहेजी हो,
और भेज दी हो तुम्हें, संभालने, समझाने,
की अब आगे का काम तुम्हारा है, तुम देख लेना,

सब अच्छे होते, मैंने कहीं और लिखा था,
तुमने भी क्यों तभी मेरे इस बचपने को,
मेरे इस भ्रम को नहीं तोड़ा,
अच्छा ही किया वैसे, सही कहती थी तुम,
हम अच्छे तो सब अच्छे,
टूटते से, बिखरते से, मन के टुकड़ों को,
अभी भी है रहता विश्वास,
प्यार पे, अच्छाई पे और तुम पे,
चाहे कैसे भी हो लोग, अच्छाई होती तो है ही कहीं उनमें,
इधर, किधर, कैसे तो, मिल ही लेती, खो गए से,
सबके इस प्यारे से स्वरूप से |